- authorparminderksh
परिवार या परमात्मा ?
कल शाम परमात्मा से मेरी बहस हो गयी ।
मैं बोली मंदिर मैं ही रेहते हो,
दर्शन तो कभी देते नहीं।
वो बोले, जितनी मिलने की थी चाह तेरी,
उससे कहीं ज़्यादा थी इच्छा मेरी।
तो तुमसे पहले, तुम्हारे माता पिता का रूप लेकर, पहुँच गया था मैं धरती।
फिर तुमसे अठखेलियाँ करने का मन हुआ,
तो तुम्हारे भाई का स्वरूप बना ।
तुम्हारी सहेली बनने की भी थी इच्छा काफ़ी,
तो बन गया मैं तुम्हारी भाभी ।
पर तुम तो जानती हो,
इच्छाएँ कहाँ ख़त्म होतीं हैं भला|
तुम्हारे साथ जीवन के सुख दुःख
टटोलने का भी मन हुआ,
तो तुम्हारे पति का मैंने रूप ले लिया ।
घर गार्हस्थ्य की उलझनें
न बन जाएँ तुम्हारे लिए पहेलियाँ,
इसलिए तुम्हारे ससुराल पहुँच,
तुम्हारी सास का मैंने रूप लिया।
बहुत सताती हो तुम,
सच में, बहुत सताती हो।
तुम्हें सताने का भी मन हुआ।
तो तुम्हारे आँगन के दो नन्हें फूल बनके,
तुम्हारे यहाँ फिर आना हुआ।
यह सुन के मैं स्तब्ध रह गयी।
नज़रें न मिला पाई मैं उनसे।
मेरे लिए परमात्मा ने कितने रूप लिए,
एक मैं भी पहचाना ना गया मुझसे।
Copyright 2021 Parminder Kaur Sharma